|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
}}
[[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6|<< पिछला भाग]]
तुच्छ है राज्य क्या है केशव? पाता क्या नर कर प्राप्त विभव? [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6|<< तृतीय सर्ग / भाग 6]] | [[रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 1| चतुर्थ सर्ग / भाग 1 >>]]
"तुच्छ है राज्य क्या है केशव? :पाता क्या नर कर प्राप्त विभव? चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास, :कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास,
पर वह भी यहीं गवाना है,
"मुझसे मनुष्य जो होते हैं, :कंचन का भार न ढोते हैं, पाते हैं धन बिखराने को,
पाते हैं धन बिखराने को, :लाते हैं रतन लुटाने को,
जग से न कभी कुछ लेते हैं,
"प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर,
:होते कबूतरों के ही घर, महलों में गरुड़ ना होता है, :कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
"होकर सुख-समृद्धि के अधीन, मानव होता निज तप क्षीण,
:मानव होता निज तप क्षीण, सत्ता किरीट मणिमय आसन, :करते मनुष्य का तेज हरण.
नर विभव हेतु लालचाता है,
"चाँदनी पुष्प-छाया मे पल, :नर भले बने सुमधुर कोमल, पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना, :आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
"उड़ते जो झंझावतों में, पीते सो वारी प्रपातो में,
:पीते सो वारी प्रपातो में, सारा आकाश अयन जिनका, :विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
"मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज, सिर पर ना चाहिए मुझे ताज.
:सिर पर ना चाहिए मुझे ताज. दुर्योधन पर है विपद घोर, :सकता न किसी विधि उसे छोड़,
रण-खेत पाटना है मुझको,
"संग्राम सिंधु लहराता है, :सामने प्रलय घहराता है, रह रह कर भुजा फड़कती है,
रह रह कर भुजा फड़कती है, :बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं,
चाहता तुरत मैं कूद पडू,
"अब देर नही कीजै केशव, अवसेर नही कीजै केशव.
:अवसेर नही कीजै केशव. धनु की डोरी तन जाने दें, :संग्राम तुरत ठन जाने दें,
तांडवी तेज लहराएगा,
"हाँ , एक विनय है मधुसूदन, मेरी यह जन्मकथा गोपन,
:मेरी यह जन्मकथा गोपन, मत कभी युधिष्ठिर से कहिए, :जैसे हो इसे छिपा रहिए,
वे इसे जान यदि पाएँगे,
"साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे, :सारी संपत्ति मुझे देंगे. मैं भी ना उसे रख पाऊँगा,
मैं भी ना उसे रख पाऊँगा, :दुर्योधन को दे जाऊँगा.
पांडव वंचित रह जाएँगे,
"अच्छा अब चला प्रमाण आर्य, हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य.
:हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य. रण मे ही अब दर्शन होंगे, :शार से चरण:स्पर्शन होंगे.
जय हो दिनेश नभ में विहरें,
भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें. "
रथ से रधेय उतार आया, हरि के मन मे विस्मय छाया,
:हरि के मन मे विस्मय छाया, बोले कि "वीर शत बार धन्य, :तुझसा न मित्र कोई अनन्य,
तू कुरूपति का ही नही प्राण,
नरता का है भूषण महान." [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6|<< तृतीय सर्ग / भाग 6]] | [[रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 1| चतुर्थ सर्ग / भाग 1 >>]]