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करके ऐसा पाप मूक भी कैसे, किन्तु रहूं मैं?
 
 
'पुत्र! सत्य तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ,
 
पर सुरत्व को भूल निवेदित करता तुझे प्रणति हूँ,
 
देख लिया, जो कुछ देखा था कभी न अब तक भू पर,
 
आज तुला कर भी नीचे है मही, स्वर्ग है ऊपर.
 
 
'क्या कह करूँ प्रबोध? जीभ काँपति, प्राण हिलते हैं,
 
माँगूँ क्षमादान, ऐसे तो शब्द नही मिलते हैं.
 
दे पावन पदधूलि कर्ण! दूसरी न मेरी गति है,
 
पहले भी थी भ्रमित, अभी भी फँसी भंवर में मति है
 
 
'नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक होगा,
 
दान कवच-कुण्डल का - ऐसा हृदय-विदारक होगा.
 
मेरे मन का पाप मुझी पर बन कर धूम घिरेगा,
 
वज्र भेद कर तुझे, तुरत मुझ पर ही आन गिरेगा.
 
 
'तेरे माहतेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ,
 
कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ.
 
आह! खली थी कभी नहीं मुझको यों लघुता मेरी,
 
दानी! कहीं दिव्या है मुझसे आज छाँह भी तेरी.
 
 
'तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ,
 
शील-सिंधु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ.
 
घूम रही मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा,
 
हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही नर जीता सुर हारा.
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