जरा सोचो!
वह पहाड़ जिसकी पूजा से बसन्त खिल उठता है
उसे दफना दफ़ना दिया जाय जाए तो
सूरज क्यों न अपनी दिशा खो दे
सूरज क्यों न क्रोधित हो जायजाए
उसकी उस सीढ़ी को उसके
रास्ते से हटा दिया जाय जाए तो
क्यों न वह आग उगलेगा।
ध् 145
सहजीविता की समझ ही ज्ञान है
संवेदनाओंसम्वेदनाओं, अनुभूतियों की पहचान ही ज्ञान है
ज्ञान प्रतिस्पर्धा नहीं प्रेम सिखाता है
प्रकृति और मनुष्य
मनुष्य और प्रकृति की सहजीविता
समूह में संभव सम्भव है
इसे सींचना पड़ता है
अब यह तुम सबका दायित्व है कि
इसका बीजारोपण आगामी पीढ़ी में करो,
ज्यों-ज्यों इसके बीज
अंकुरित अँकुरित होंगे, पुष्पित होंगे, फलित होंगेत्यों-त्यों बाघ पर अंकुश अँकुश लगेगा
और तब ही रोग निवारण के लिए
औषधियों का अस्तित्व रहेगा
उसी के अस्तित्व से नियंत्रित नियन्त्रित होंगे प्राकृत-अप्राकृत बाघ’’
डोडे की बातों से
सातों जनों के मन में लहर उठती
कभी अचानक ही उसकी लौ दहक उठती
वैद्य कहते जाते और
परीक्षार्थियों के चेहरे की भंगिमा भँगिमा को भी परखते जातेऔर उनकी भौंहों की रेखाएं रेखाएँ सिकुड़ती-फैलती जाती
‘क्या सातों जन सफल होंगे
या फिर कोई एक-दो ही
तो क्या उनके जीवन की साध अधूरी रह जाएगी?
एक साथ सात जनों की सफलता की साध
जो अब तक संभव सम्भव नहीं हुआ है उनके गुड़ी की दुनिया में?
परिस्थितियों की प्रस्तुति
और उसके सन्दर्भों की व्याख्या कर
146 ध्
गुड़ी परीक्षा के लिए आवश्यक निर्देश देते हुए
डोडे वैद्य ने फिर कहना शुरू कियाµकिया —
‘‘घनी काली रात
इतनी काली कि
केवल प्रतीति हो किसी आकृति के उभरने की
मिथ्या और भ्रम उत्पन्न करने वाली
ऐसी ही काली अँधेरी अन्धेरी रात में उभरती
आकृतियों को पहचानने की परीक्षा है यह,
आदमी को आदमी और
बाघ को बाघ के रूप में
पहचानने की क्षमता आती है
उसके व्यवहार के अतिरिक्त
जीवन -अनुभवों के साथ
इतिहास, दर्शन और विज्ञान की भी पड़ताल से
हमारे लिए रात का आशय
बल्कि व्यवस्था रूपायित रोग से भी है,
यही विचार गितिः ओड़ाः, धुमकुड़िया, घोटुल
और पड़हा के गणतंत्रा गणतन्त्र का विस्तार करेगासहधर्मियों को अपने संघर्ष सँघर्ष में
शामिल होने का अवसर देगा
अँधेरे अन्धेरे के साम्राज्य के समूल नाश के लिएसहधर्मियों के संघर्ष सँघर्ष का साथ होना जरूरी ज़रूरी है’’
उनके सामने धुअन की
महक उड़ती रही
उसके नशे में जैसे वहाँ सब धीरे-धीरे
मदहोश हो रहा था
कुछ पल आँखों को और गंभीरता गम्भीरता से मीचते हुए डोडे ने कहा
‘‘जैसे ‘अहद् सिंग’ को लाँघने के बाद
मनुष्य घर का रास्ता भूल
ध् 147
नदी, पहाड़, जंगलों में
वर्तमान से इतर यथार्थ की दुनिया में पहुँच जाता है
यहीं से तुम्हें मिलेगी
रोग के कारक और निवारक को पहचानने की शक्ति,
और जब तुम लौटोगे
उस अवास्तविक-वास्तविक दुनिया से, तो होगी
नयी नई सुबह, नयी नई दिशाएँ, और नया जीवन
तुम सात जन होगे सात जीवन
सात अनुभव, सात ज्ञान,
लेकिन तब तक रास्ते में होंगे
जहरीले ज़हरीले साँप, कीड़े-कॉक्रोचरेत, दलदल, तूफानतूफ़ान, विस्फोटऔर भयावाह भयावह परिस्थितियाँ
तुम्हें इन सबसे लड़ना ही होगा,
अब मैं यह लाठी धरता हूँ
मंतर मन्तर शुरू करता हूँमंतर मन्तर नहीं, यह गीत गाता हूँ
‘‘तन मन जन
को घेरे हैं जहरीले ज़हरीले फन
पेड़ पहाड़ तितली जुगनू
सभी सहजीवी होंगे मृत
जब होगी बिषधर
सुनो सपेरे स्याह सवेरे
148 ध्
कैसे तोड़ोगे विष के घेरे
सात जनों की सात कथा
रहेगी तब तक यही व्यथा
तन की, मन की, जन की’’
अरे, यह क्या?
मंतर मन्तर का असर होता है
नहीं गीत ही जीवन में घुलता है
जीवन रूपायित होता है गीत में,
देखो, पहला ध्यानस्थ देखता हैµहै — ‘‘नृतत्वशास्त्राी ‘‘नृतत्वशास्त्री खेत में फसलोंफ़सलोंकी किस्मों क़िस्मों को अलग कर रहे हैंवे एक खास किस्म ख़ास क़िस्म कीफसल फ़सल की तरफ संकेत करते हुए
कहते हैं कि इनकी प्रजाति एक ही है
एक ही मूल के हैं ये
कोल, भील, मुण्डा, संथालसन्थाल, गोंड, खरवार
बैगा, मुड़िया, कोंड, कोया, पहाड़िया,
ऐसे ही और भी सभी,
जिनका एक ही सहजीवी दर्शन रहा है,
एक नृतत्वशास्त्राी कहता नृतत्वशास्त्री कहना हैकि जब घुमन्तु ग्रह की ठोकर लगी थी जबरदस्तज़बरदस्त
ये टुकड़ों में बिखर गए
सभी दिशाओं में, सभी भौगोलिक कोनों में,
वह ग्रह टूटा नहीं बल्कि
वह उनकी ही जमीन ज़मीन पर गिरा
और उनके आधे से अधिक
जमीन ज़मीन पर जबरन काबिज काबिज़ हो गयाअब जमीन ज़मीन के लिए संघर्ष शुरू हुआ
और इसके साथ ही शुरू हुआ दानवों का जन्म
उस ग्रह के लोग जितना
अपने जीतने का दावा करते
उतना ही देवताओं और दानवों का जन्म होता गया,
उस नृतत्वशास्त्राी नृतत्वशास्त्री के पास
एक युवा शोधार्थी आता है और कहता है
‘नहीं रहे अब सब एक-से
ध् 149
एक-सा नहीं रहा उनका सहजीवी दर्शन
धर्म में, नस्ल में, रंग में बाँट दिए गए हैं ये
ये ही नहीं, पूरी मनुष्यता ही बँटी है धरती पर’
ज्यों-ज्यों उस ग्रह का प्रभुत्व बढ़ता गया
वे अपना मूल उत्स भूलते चले गए
कुछ अलग दूर उनसे लगातार संघर्ष करते रहे
उनका यह संघर्ष आज भी जारी है
उस ग्रह के पंजे में फँसे लोग
मनुष्य होकर भी पशुता-से प्रताड़ित हैं
अपने ‘मनुष्य होने’ के दावे के साथ
उनके पंजों से बचने के लिए लड़ रहे हैं
दोनों की अस्मिता पर प्रश्न चिद्द चिह्न है
दोनों का अस्तित्व संकट ग्रस्त है
आज उस प्रभु ग्रह की जीभ
उनकी पूरी जमीन ज़मीन को
ग्रस लेने की असीमित लालसा में है
जहाँ उनकी भाषा है, इतिहास है, दर्शन है
और वह ध्यानस्थ देखता है
उस ग्रह की जगह एक विशाल अजगर
वह मदद के लिए पुकारता है
और अब उसी प्रभु ग्रह के कुछ न्यायी जन
उसकी मदद के लिए आवाज आवाज़ उठाते हैंवह उन आवाजों आवाज़ों को अपने में मिला लेना चाहता हैआवाज आवाज़ उसकी तरफ तरफ़ बढ़ती है
‘जनवाद! जनवाद! जनवाद!’
‘जन-संस्कृति!’
‘जन-संस्कृति!’
के संकल्पबद्ध वैश्विक स्वर के साथ।
150 ध्दूसरी ध्यानस्थ हैµहै — ‘‘अरे, मैं यहाँ कहाँ पहुँची हूँµहूँ — संभ्रांत सम्भ्रान्त कलात्मक नक्काशी नक़्क़ाशी के साथसड़कें, चौराहें, गोलंबर गोलम्बर सब सजे हैं
दिन में भी बिजली की रोशनी
दीवारों पर हँसते-मुस्कुराते
वाह! कितना आकर्षक है!
वाह! कितना विकास है!
ओह! लेकिन यह किसके चीखने चीख़ने की आवाज आवाज़ है?दिन का उजाला है, मौसम खुशनुमा ख़ुशनुमा है
ऐसे में तो गीत उच्चरित होने चाहिए
लेकिन यह चीख चीख़ क्यों?
मैं लोगों के पास जाकर
चीख चीख़ के बारे में पूछती हूँ
आश्चर्य! मेरी छुअन से
वे कछुआ हो गयेगए... मेरा रोमांच रोमाँच अचानक भय में बदलने लगा हैचीख चीख़ मेरे सामने और सामने आने लगी हैलेकिन यह क्या चीख चीख़ मेरे ही कानों को सुनाई दे रही है?लोगों के अपने-अपने कलात्मक खिड़की-दरवाजे दरवाज़े इत्मिनान बंद से बन्द हैं?
अरे यह क्या?
मैं ही गलियों में अब दौड़ रही हूँ, भाग रही हूँ
अरे नहीं, मैं कहीं नहीं दौड़ रही, कहीं नहीं भाग रही
दरअसल मेरे अन्दर सिनगी दई का खून ख़ून दौड़ रहा हैफूलो, मकी, झानो का खून ख़ून दौड़ रहा हैमेरे अंदर अन्दर मेरी ही माँ-दादी का खून ख़ून दौड़ रहा हैऔर मैं तड़पती हँूहूँइस द्वंद्व द्वन्द्व से बाहर निकलने के लिए
मैं दिन में पहुँचती हूँ
एक अँधेरी अन्धेरी गली में
‘अरे यह क्या...?
यह तो किसी युवती की लाश है?
निरीक्षण करती हूँ आसपास
ध् 151
लोगों की कलात्मक खिड़कियाँ हैं
नक्काशीदार दरवाजे नक़्क़ाशीदार दरवाज़े हैं
कलाओं का उत्सव है
वहीं हैं एक ओर सफेद सफ़ेद विज्ञापनऔर स्त्राीस्त्री-प्रताड़ना के कानून
इन सबके बीच मुझे दिखाई देती है
एक जीवित स्त्राी स्त्री की मटमैली आकृति
जिसके हाथ में हथौड़ा है, छेनी है,
हँसुआ है, चूल्हा है, चौकी है,
लेकिन उसके मूल्य का निर्धारण करता हुआ
वहीं पास में धुँआ धुआँ उड़ाता एक पुरुष है,
मैं युवती की लाश पर झुकती हूँ
उसे गोद में उठाती हूँ
लेकिन अरे यह क्या...?
यह तो समकालीन किसी पत्रिका का ‘स्त्राी‘स्त्री-विशेषांक’ है?उसके आवरण -पृष्ठ परएक गर्भवती स्त्राी स्त्री की नंगी तस्वीर छपी है
जिसके गर्भ में दो भ्रूण हैं
एक में बच्चा है, दूसरे में बच्ची है
बच्चे के सिरहाने ताजे ताज़ा फूल रखे हैं
और बच्ची के सिरहाने
सफेद सफ़ेद कपड़ों से लिपटा एक ताबूत रखा है, और उसके अंदर अन्दर के पृष्ठ पर
एक कोंदरेड्डी महिला की तस्वीर के साथ
विमर्श का विषय चस्पा है
‘बलात्कार शब्द की व्युत्पति’
और किसी ने अपना पक्ष रखा है
‘कम कपडे़ कपड़े पहनने के बावजूद
आदिवासी समाज की भाषाओं में
उनका मूल शब्द ‘बलात्कार’ नहीं है’
पत्रिका में कामुकता, कुंठाकुण्ठा,
अवसाद और निराशा की शब्दावलियाँ
घोटुल, गितिः ओड़ाः,
और धुमकुड़िया के शब्दों के सामने
बौनी और अपाहिज प्रतीत हो रही हैं,
पत्रिका से नजर नज़र हटते ही देखती हूँ152 ध्
लोगों की भीड़ मुझे घूर रही है
मैं घबराकर आदमकद आदमक़द आईने के पास जाती हूँमैंने देखा मेरा रूप विचित्रा विचित्र हो चुका था
मेरी कलाई में चूड़ियों की जगह
बैंक चेक और ड्राफ्ट ड्राफ़्ट थेकान की बालियों की जगह रंगीन चलचित्रा चलचित्र थे
और जूड़े में फूल कि जगह
‘फेयर ‘फ़ेयर लोशन’ के विज्ञापन झूल रहे थे
मेरी पूरी देह असीमित वस्तुओं की सूची से भरी थी
मुझे अपनी देह विज्ञापन की होर्डिंग लग रही थी
तभी किसी ने मुझसे कहा
‘अब तुम आदिवासी स्त्राी स्त्री नहीं हो
और यहाँ आकर
तुम्हारा समाज भी अब आदिवासी नहीं रहा’
लेकिन सामने केवल एक शब्द
हवा में जड़हीन तैर रहा था ‘आदिवासी’,
मैंने गौर ग़ौर से खुद ख़ुद को देखासचमुच मैं कोंडरेड्डी स्त्राी स्त्री नहीं थी
और मैं जहाँ थी
वह कोंडों की दुनिया नहीं थी
कोंड ‘पहाड़ों’ के राजा कहलाए
नहीं थीं वे नदियाँ
जिसका जल लेकर कोंड स्त्रिायाँस्त्रियाँ
हल जोतने से पहले
अपने असमय मृत बच्चों का
आह्नान आह्वान करती थीं
बीज बनकर अवतरित होने के लिए,
मैं बेचैन हो उठीµउठी —
मेरी अस्मिता क्या है
क्या मैं कोंडरेड्डी स्त्राी स्त्री नहीं हूँया, वह संभावित स्त्राी सम्भावित स्त्री हूँ
जिसकी हत्या उस चौराहे पर हुई है
उफ!!...यह द्वंद्वद्वन्द्व
मुझे हत्या या आत्महत्या के रास्ते पर ले जाएगा।’’
ध् 153तीसरा ध्यानस्थ देखता हैµहै —
‘‘अहा! क्या सुन्दरता है!
इतने रंगों का गतिमान समायोजन
जैसे उसी की ओर
आसमान से उतर कर धरती पर!
उनके माथे पर
रंग -बिरंगे पक्षियों के पंख सजे हैं
पंख ही मुकुट हैं उनके
पूरा समूह बढ़ा आ रहा है उसकी ओर
पहचनता है उन्हें वहµवह — ‘रेड इंडियंस इण्डियंस अबूझमाड़ में
इन्द्रावती का पानी पी रहे हैं
और उन्हें गोरे सैनिकों ने
अब वे और उनके घोड़े
बिना अनुमति के
बिना कीमत क़ीमत अदायगी के
पानी नहीं पी सकते हैं
ऐसा करना अपराध है।’
चौथे ध्यानस्थ ने सुने
चेतावनी भरे आज्ञावाचक शब्द
‘शूद्र’! ‘नीच’!
तुम्हारी यह हिम्मत
कि तुम धर्म की नीतियों का उल्लंघन उल्लँघन करोगे?हम इस मंदिर मन्दिर के पुजारी हैं
सदियों से वंशानुगत
हमारे पुरखे इसके पुजारी रहे हैं