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|संग्रह=
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वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो <br>चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे चट्टानों की छाती से दूध निकालो <br>है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो <br>पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो <br><br>योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!
चढ़ तुंग शैल शिखरों जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है चिनगी बन फूलों का पराग जलता है सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है अम्बर पर सोम पियो अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे <br>योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे! <br><br>
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है <br>चिनगी बन फूलों का पराग जलता भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है <br>सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है <br>वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है <br>
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे <br>उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रेतलवार प्रेम से और तेज होती है! <br><br>
जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है <br>छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है <br>मरता है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है <br>वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल जो एक ही बार मरता है <br><br>
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है <br>तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे तलवार प्रेम जीना हो तो मरने से और तेज होती हैनहीं डरो रे! <br><br>
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये <br>स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये <br>दो बार बाहरी वस्तु यह नहीं यमराज कण्ठ धरता है <br>मरता है जो एक ही बार मरता भीतरी गुण है <br><br>
तुम स्वयं मृत्यु के मुख वीरत्व छोड़ पर का मत चरण धरो गहो रे <br>जीना हो तो मरने से नहीं डरो जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे! <br><br>
स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन जब कभी अहम पर नियति चोट देती है <br>बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है <br><br>
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे <br>जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे! <br><br>
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है <br>कुछ चीज़ अहम से बड़ी उद्देश्य जन्म लेती का नहीं कीर्ति या धन है <br>नर पर जब सुख नहीं धर्म भी भीषण विपत्ति आती नहीं, न तो दर्शन है विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है <br>वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है <br><br>
चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे <br>धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे! <br><br> उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है <br>सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है <br>विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है <br>जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है <br><br> सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा <br>पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा! <br><br/poem>
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