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मां (3) / कैलाश पण्डा

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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
ओ माँ, तुम कहां हो
तुम्हारी याद
क्षण-क्षण की स्मृति
तुम तो त्याग कर
चली गयी
जीवन में उत्साह भर
रूदनकणों को
आत्मसात् कर
मुझ कीट को
रक्तमांस से सिन्चित कर
आंचल में छिपा
पालन कर गयी
स्नेह पूरित छाया तेरी
तेरा आचरण
मेरा आवरण बनाकर
प्रस्थान कर गयी
वृद्धाओं में तेरी प्रतिमूर्ति
यौवनाओं में तेरी सुन्दरता
बालिकाओं में कोमलता
तुम्हारी ही पाता हूँ
ओ माँ तुम जहां भी हो
मेरे नजदीक
प्रत्येक नारी में विराजमान
तुम ही हो।

</poem>
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