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07:03, 23 दिसम्बर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'
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<poem>
कितनी बातें बोली उसने याने क्या-क्या बोला था
याद नहीं है इतना लेकिन कुछ तो गन्दा बोला था
इतना फूहड़ निकला साहिब मेरा अपना चेह्रा भी
झुँझलाया मैं उसपे बेहद जिसने अच्छा बोला था
मैंने भी राधा बोला था उस को दौर-ए-उल्फ़त में
उसने भी बांहों में भर के मुझको कान्हा बोला था
किसका किस्सा हो बैठा है?गुस्से में बोला हाक़िम
मैंने पगले! हो जाने को किसका किस्सा बोला था?
अब तो 'अपना' लफ़्ज़ सुनें तो सर से पा कँप जाते हैं
उसने ही घर फूका मेरा जिसने 'अपना' बोला था
तिश्ना लब के हिस्से साहिब! क़तरा तक मौजूद नहीं
तुमने तो जब भेजा था तो हिस्से दरिया बोला था?
पछतावा भी होता है फिर 'दीप' ख़ुशी भी होती है
गो मुझको बर्बाद किया पर उसने 'जाँना' बोला था
</poem>