1,317 bytes added,
07:04, 23 दिसम्बर 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हम ने ख़ूब नचाया ख़ुद को
यानी ख़ूब चबाया ख़ुद को
बैठा कर के कल समझाया
अपना और पराया, 'ख़ुद को'
जब बे-होशी खुल कर नाची
होश नहीं झुँझलाया ख़ुद को?
ख़ुद को ख़ुद से ही गिरवाकर,
ख़ुद से ही उठवाया ख़ुद को
वही चीख़ता है क्या शब भर!
जिस ने मार भगाया ख़ुद को?
किस अंधियारे का है दिन,कि
खोजे, अपना साया ख़ुद को
वरना दुनिया क्या-क्या करती
खैंच-खांच कर लाया ख़ुद को
'जिधर-जिधर से छुड़वाया था
उधर-उधर फिर पाया ख़ुद को'
दीपक शर्मा 'दीप' समझ कर
उस जाहिल ने खाया ख़ुद को
</poem>