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07:07, 23 दिसम्बर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'
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<poem>
सोचते हैं वे मर चुका हूँ मैं
ख़ैर थोड़ा बहुत बचा हूँ मैं
एक बेचेहरगी सी है मुझमें
और बेचेहरगी! ख़फ़ा हूँ मैं
तोड़ दे तोड़ दे ऐ बदसूरत!
तोड़ भी दे कि आईना हूँ मैं
वो निकाले भी तो भी मर जाए
ऐसा अंदर तलक घुसा हूँ मैं
नींद में छट-पटा रहा हूँ बस
कौन कहता है उठ रहा हूँ मैं
यार अपना भी है पता मुझको
और तुझको भी जानता हूँ मैं
रोज़ ख़ुद को ही बो के तकता हूँ
रोज़ ख़ुद को ही काटता हूँ मैं
</poem>