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<poem>

उस शख़्स से आती थी जुदाई की महक कुछ
फिर आने लगी हम को रुलाई की महक कुछ

चिल्ला के, फ़क़त शक़ को,यकीं उसने बनाया
'टपकी थी ज़ुबां से जो सफ़ाई की महक कुछ'

वो शब थी ग़ज़ब शब कि बताऐं तो तुम्हें क्या
कुछ और ही लगती थी रजा'ई की महक कुछ

निकली है ग़ज़ल किसकी कलम चूम के गोया
आती है ग़ज़लगो की लिखाई की महक कुछ?

"गो हमको नहीं मिलती रिहाई, ये अलग बात,
मिलती है मगर हम को रिहाई की महक कुछ"

बे-शक़ ही मुहब्बत में कहीं कुछ तो है गड़बड़
कहती है मिरी-जां की 'सिधाई की महक कुछ'

हर सिम्त वही 'आस के टुकड़ों पे जिगर चाक'
तुझ को भी मिली 'दीप' ख़ुदाई की महक कुछ!
</poem>