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मैं चेतन रह जाता / कैलाश पण्डा

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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
तुम उभरते हो कभी-कभी
तब मेरे अन्तस को
स्पर्श कर
एक नया स्वर्ग रचते हो
जब सत्व के अत्यन्त प्रकाश में
मेरा चित्त मेरी आत्मा को
उजागर करता
तब रोग द्वेषादि वृतियों से रहित
केवल मैं अपने में स्थित
परम तत्व का आभास करता
मेरे चारों ओर
कोई भी पार्थिव नहीं होते
किन्तु कुछ ऊर्जा मानो
मुझे उन्मुक्त अनन्त आकाश में
ले जाती प्रतीत होती
मेरे शरीर के कोई भी अड़
मुझे नहीं भासते
मैं केवल चेतन रह जाता
मैं इन्द्रियों से दूर
अलौकिक किसी मन्दिर में स्थित होता
सच पूछो तो
ये शब्द भी कल्पित हैं
उस क्षण के लिए।
</poem>
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