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जीवन का यथार्थ / कैलाश पण्डा

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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
वायु के संसर्ग से
रेत के आंचल में
कुछ रेखाएं
स्वतः ही उभरती चली गयी
अरू बिखर गये कण
अहा, मैंने देखा जीवन का यथार्थ !
आड़ी-तीरछी/आधी अधूरी सी पटियां
मानो कुछ कहती हो
जिस पर कुछ लिखने का प्रयास
होता रहा होगा
अनुभव की झूठी आड़ में
गंवा दिया जीवन
वायु को कहां डांट पाती
जब स्वयं को भी नही रोक पाती
पहाड़ सा दिखने की कला तो सीख ली
काश पहाड़ बन पाती
उसके सम्पर्क से
अन्तर को मांज पाती
कण-कण में छुपे लौह तत्व को
जब जान पाती/तब चंचलताओं को छोड़
चित्त में ठहर पाती
वायु के संसर्ग...।
</poem>
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