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09:06, 27 दिसम्बर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कैलाश पण्डा
|अनुवादक=
|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
}}
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<poem>
जंगखाया लौह
कितनों की जिंदगी
संवार देगा
वायु के संसर्ग से
जल के स्पर्श से
वह उदारीण मात्र ही सही
कठोरता की अभिव्यंजना को
भले ही त्याग दिया हो
जो लगा था
उतार दिया हो
अपने कार्य के प्रति
उदासीन नहीं
किसी भी तरह
शर्मसार नहीं
समय के वेग ने
कर दिया जर्जर
किन्तु अब निर्झर
समय गंवाता नहीं
तभी तो वनज
कम होता नहीं
सूरत पर मत जाओ
अनुभव की चादर में लिपटा वह
भले ही शरीर से
असमर्थ सा
दवा के रूप में
पेट में जाकर ज्वार देगा।
स्वयं का अस्तित्व खो
परोपकारमय हो
एक दिशा देगा
जंग खाया लौह
कितनों को तार देगा।
</poem>
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