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मांडणा / मनोज चारण 'कुमार'

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<poem>
काची काची,
गोबर रो लेव लगायेङी,
नूंई निपीजेङी भींता माथै,
दादी मांड्या करती,
दशाजी को गोखङो,
माँ धोळक लगाती आंगणै,
मांड्या करती मांडणा।
कठै सीख्या,
कुण सिखाया,
किनै स्यूं आया,
कुण जाणै,
खाली बैठी लुगायां को,
आळ हो,
कै हो धङकणूं,
स्यात म्हारी संस्कृति रो,
जूना जुगां सूं जकी,
बैवै ही रगां मैं,
गाँव, गळी,
अर सगळी जगां मैं।
मानखै री जात,
जद रैंवती गुफावां मांय,
संघरस हो जीवणै रो,
सागो जंगळी जीवां रो,
मिनख बधै हो आगूंच,
उणी टेम,
गुफांवा री डोळयां माथै,
जूनी जोगण्यां,
मांड्या पैला मांडणां।
साव आळी,
साव भोळी,
जुगां जुग सूं,
काची माटी री जायोङी,
काची माटी नै घोळ'र,
जीवण रै काचापणै मांय,
ढ़ूंढ़ै मुळकती जिंदगी,
अर मांडै घर,
अर घर मैं मांडै मांडणा।
कई खेल्या,
कई खेलग्या,
कई खेलैला,
इण संस्कृति रै आंगणै,
घणा जणा तो ईंया ई गिया,
नीं दीसै नाम निसाण,
पण कई जबर हा पांवणा,
खेल्या,
कूदया,
गया,
पण, लारै रैग्या,
जकां रा मांडणा।।
</poem>
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