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16:13, 28 जून 2008 मन से मनको लिख रही हूँ,
पाती एक अजानी प्रियतम !
पाती मेँ प्रेम - कहानी !
तुम भी हामी भरते जाना,
सुनते सुनते बानी ..
फिर कह रही कहानी !
कहुँ, सुनाऊँ, तुमको प्रियतम,
था राजा या रानी ?
सुनोगे क्या ये कहानी ?
सुनो, एक थी रानी बडी निर्मम !
पर थी वह बडी ही सुँदर !
ज्यूँ बन उपवन की तितली !
गर्वीली, मदमाती, बडी हठीली !
एक था राजा, बडा भोला नादान
रखता सब जीवोँ पर प्रेम समान !
बडा बलशाली, चतुर, सुजान !
सुन रहे हो तो हामी भरना
अब आगे सुनो कहानी !
भोर भए , उगता जब रवि था,
राजा निकल पडता था सुबही को,
साथ घोडी लिये वह "मस्तानी"
सुनो, सुनो, ये कहानी !
छोड गाँव की सीमा को वह,
जँगल पार घनेरे कर के,
आया, जहाँ रहती थी रानी !
अब आगे सुनो, कहानी ..
रानी रोज किया करती थी
गौरी - व्रत की पूजा,
नियम न था कोई दूजा ~
छिप मँदीर की दीवारोँ से,
देखी राजा ने रानी -
मन करने लगा मनमानी !
किसी तरह पाऊँ मैँ इसको,
हठ राजा ने ये ठानी !
वह भी तो था अभिमानी !
पलक झपकते रानी लौटी,
लौट चले सखीयोँ के दल
मची राजा के दिल मेँ हलचल !
पाणि - ग्रहण प्रस्ताव भेजकर
राजा ने देखा मीठा सपना
दूर नहीँ होँगेँ दिनी ऐसे,
हम जब होँगेँ साजन - सजनी !
रानी ने पर अपमानित करके,
ठुकराया उसका प्रस्ताव !
क्या हो, था ही हठी स्वभाव !
आव न देखा, ताव न देखा,
राजा ने फिर धावा बोला--
अब तो रानी का आसन डोला !
बँदी बन रानी, तब आईँ
राजा के सम्मुख गई लाईँ
कारा गृह मेँ भेज दीया कह,
"नहीँ चाहीये, मुझे गुमानी !
ना होगी मेरी ये, रानी ! "
एक वर्ष था बीत चला अब
आया श्री पुरी मेँ अब उत्सव !
श्री जग्गनाथ का उत्सव !
रीत यही थी, एक दिवस को,
राजा , झाडू देते थे ....
मँदिर के सेवक होते थे !
बुढा मँत्री, चतुर सयाना
लाया खीँच रानी का बाना कहा,
" महाराज, ये भी हैँ प्रभु की दासी,
- पर मेरी हैँ महारानी ! "
कहो कैसी लगी कहानी ?
सेवक राजा की ,सेविका से,
हुई धूमधाम से शादी--
फिर छमछम बरसा पानी !
मीत हृदय के मिले सुखारे
बैठे, सिँहासन, राजा ~ रानी !
हा! कैसी अजब कहानी !
जो प्रभु के मँदिर जन आयेँ,
पायेँ नैनन की ज्योति,
प्रवाल - माणिक मुक्ता मोती !
यहाँ न हार किसी की होती !
अब कह दो मेरे प्रियतम प्यारे,
कर याद मुझे कभी क्या, वहाँ,
हैँ आँख तुम्हारीँ रोतीँ?
काश! कि, मैँ वहाँ होती !