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खोया अस्तित्व / कविता भट्ट

106 bytes removed, 03:26, 14 फ़रवरी 2018
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पक्षियों के पर रँगीलेएक बूँद गई खारे सागर में ऐसेरेशम की बन्धन सजीलेएक कली सूख जाए बंजर में जैसेहरीतिमा डाली निरालीयदि जाती सीपी-मुख मेंनव किसलय, अमृत प्यालीतो सम्भवतः बदलती मोती में न जाने क्यों चुना यह विकल्प?
रोक लेंगे क्या ये सब मुझेभाग्य की उससे निर्ममताया फिर उसकी अपनी ममतामिट्टी कुम्हार के हाथों बनी मूर्त रूपसहते-सहते जीवन की छाँव॥-धूपकहाँ खो गया उसका अस्तित्व?
स्वप्नों की बारातें प्यारीपूर्णतः विकसित होकरस्मृतियों की सौगातें न्यारीमृतप्रायः फिर भी जीवित होकरनीलगिरि की बहती धारामिट गया उसका नाम कहींऔर भोर का उगता ताराखो गई पृथक् पहचान कहीं
रोक लेंगे क्या ये सब मुझेकहाँ खो गया उसका पृथक्त्व?
पर्वतों के श्वेत सोतेप्राची मस्तक उषा अरुण होतेअश्रुओं की प्यारी करुणाऔर ये सारी मृगतृष्णा रोक लेंगे क्या ये सब मुझे? अभी बीते क्षण सभी जानते हैं उसे किसी अंश-रूप मेंऔर मृदाकण मेंजगी थी एक स्फूर्तिसजी थी एक मूर्ति फिर यह आलस्य कैसामुझे तो चले जाना हैकहीं दूर… अति दूर…ये सब असीम भौतिक सुखमाता-साजसुता-भगिनी-पत्नी-प्रेयसी-नर्तकी रोक लेंगे क्या ये सब मुझेकहाँ खो गया उसका नारीत्व?
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