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{{KKRachna
|रचनाकार= मानोशी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}

<poem>
अनगिन तारों में
इक तारा ढूँढ़ रहा है,
क्या खोया क्या पाया
बैठा सोच रहा मन।

छोटा-सा सुख मुट्ठी से गिर
फिसल गया,
खुशियों का दल
हाथ हिलाता निकल गया
भागे गिरते-पड़ते पीछे,
मगर हाथ में,
आया जो सपना वो फिर से
बदल गया,
सबसे अच्छा चुनने में
उलझा ये जीवन।
क्या खोया क्या पाया
बैठा सोच रहा मन।

सबकी देखा-देखी में
मैं भी इतराया,
मिला नहीं कुछ मगर हृदय
क्षण को भरमाया,
आसमान को छू लेने के पागलपन में,
अपनी मिट्टी का टुकड़ा
बेकार गँवाया,
सीधा सादा जीवन रस्ते कांकर बोए,
फूलों के मधुरस में भी
पाया कड़वापन।

क्या खोया क्या पाया
बैठा सोच रहा मन।
</poem>