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09:30, 29 जून 2008 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मनोहर 'साग़र' पालमपुरी
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[[Category:ग़ज़ल]]
थी आरज़ू कि ख़ूब हँसायेगी ज़िन्दगी
सोचा न था कि इतना रुलायेगी ज़िन्दगी
दामन छुड़ा के इससे कहाँ जायेगा बशर ?
हाथ अपने हर क़दम पे दिखायेगी ज़िन्दगी
जिन में नहीं है दम कि करें इसका सामना
उन बुज़दिलों को खूब सतायेगी ज़िन्दगी
इन्सानियत के वास्ते क़ुर्बान कर इसे
दामन के सारे दाग़ मिटायेगी ज़िन्दगी
इक ख़्वाब ने ही नींद से महरूम कर दिया
अब और कितने ख़्वाब दिखायेगी ज़िन्दगी
रोके से रुक सकेगी न गर्दिश नसीब की
यूँ तो कई फ़रेब दिखायेगी ज़िन्दगी
वो दिन भी थे कि लगती थी फ़स्ले बहार —सी
वैसी कभी न लौट के आयेगी ज़िन्दगी
‘सागर’! गुज़ार दे इसे सच की तलाश में
यूँ तो किसी भी काम न आयेगी ज़िन्दगी