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सुरजा / ज्योत्स्ना मिश्रा

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औरतें अजीब होंती हैं सुरजा तुम घर से भाग कर कहाँ गयी होगी? औरतें अजीब होती हैं लोग सच कहते हैं, औरतें अजीब होती हैंरात भर सोती नहीं पूरा, थोडा थोडा जागती रहतीं नींद तुम्हारे एक कमरे के घर की स्याही में उंगलियाँ डुबो, दिन बाँयीं तरफ की बही लिखतीं दीवार पर टटोलती रहतीं दरवाजों तुम्हारी दाँयी हथेली की कुण्डियाँ, छाप पूछती है बच्चों की चादर, पति का मन! और जब जगाती सुबह तो पूरा नहीं जागतीं, नींद में ही भागतीं हवा की तरह घूमतीं घर बाहर टिफ़िन में रोज़ नयी रखतीं कवितायेँ गमलों में रोज़ बो देतीं आशायेंपुराने पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं और चल देतीं फिर, एक नए दिन के मुक़ाबिल पहन कर फिर वही सीमायेंतुम कहाँ गयी हो?
खुद से दूर होकर हीनिकलते निकलते, लौट कर सब सोये पिता की उल्टी पड़ी चप्पल, सीधी करने के करीब होती हैं उद्यम में, औरतें सच जो हल्की-सी आहट छोड़ गयीं वो आहट बहुत बेचैन है वो ग्लास का आधा पिया पानी जो न जाने किस उलझन में अजीब होती हैं कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं पिया बीच में ही छोड़ कर, बहुत परेशान है देखने लगतीं हैं तुम कहाँ गयी होगी? बच्चों तुम्हारी कॉपी के मोज़े, पेंसिल, किताबआखिरी पन्ने पर फूलपत्ती-सा दिखता जो एक अक्षर है वो अक्षर पूछता है
बचपन में खोई गुडियापिछली दीवाली पर, एक बार पहन कर रख दी थी जो जवानी में खोये पलाश।वो कुर्ती नाराज़ है तुमसे मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी उसे भी बता कर नहीं गयीं तुम छिपन छिपायी के ठिकाने गो पता है ये उसे भी वो छोटी बहन, छिप कि मुड़कर देखा तो होगा एक बार पर बक्से का कुंडा खड़कने के कहीं रोतीसहेलियों डर से, लिए, दिए, चुकाए हिसाब बच्चों के मोज़े, पेंसिल, किताब! खोला नहीं होगा
खोलतीं बंद करती खिड़कियाँ तुमने खाना खाया या नहीं? क्या कर रही हो, सो गयी क्यातुम्हें भी उसकी उतनी ही याद आती है? खाती रहतीं झिडकियाँन शौक से जीतीं, न ठीक से मरतींकोई काम ढंग से नहीं करतीं जितनी तुम्हारी माँ के आँचल के छोर को तुम्हारी आती है?
कितनी बार देखी क्या खुश हो तुम? क्या वह कमरा इस कमरे से बेहतर है? मेकअप लगाये, चेहरे के नील छिपाए क्या वह चादर इस चादर से साफ? वो कांस्टेबल लड़की क्या वहाँ तुम्हारी अपनी कोई जगह है वो ब्यूटीशियन, वो भाभी वह दीदी कोई जमीन? कोई आसमान? चप्पल के टूटे स्ट्रेप को कोई नाम? कोई चेहरा है तुम्हारे पास? साड़ी के फाल से छिपातीकोई अलमारी? कोई टेबल? कोई दराज़? वो अनुशासन प्रिय टीचर जहाँ तुम रखती हो मोरपंख और कभी दिख ही जाती है सूखे गुलाब? कोरिडोर में या अब भी सपने तुम्हारी जल्दी जल्दी चलती नाखूनों से सूखा आटा झाड़तीसुबह जल्दी भिंची हुई मुठ्ठी में नहायीही दबे हैं? अस्पताल आई वो लेडी डॉक्टर! ज्यों के त्यों?
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में या अब भी तुम्हारे उजाले उतने ही गुमसुम रात फिर से सलीब होती है तुम्हारे अँधेरे उतने ही मनहूस?  सच है, औरतें बेहद अजीब होती हैं सूखे मौसमों में बारिशों को याद कर के रोती हैं उम्र भर हथेलियों में तितलियाँ संजोती हैं  और जब एक दिन बूँदें सचमुच बरस जाती हैं हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं तो ये सूखे कपड़ों, अचार, पापड़ बच्चों और सब दुनिया को भीगने से बचाने को दौड़ जाती हैं  ख़ुशी के एक आश्वासन पर पूरा पूरा जीवन काट देतीं अनगिनत खाईयों पर अनगिनत पुल पाट देतीं ऐसा कोई करता है क्यातुमने पा लिया? एक एक बूँद जोड़ कर पूरी नदी बन जातीसमंदर से मिलती तो पर समंदर न हो पाती  आँगन में बिखरा पड़ा किरची किरची चाँद उठाकर जोड़ कर जूड़े में खोंस लेतीशाम को क्षितिज इस कमरे के बाहर का स्वर्ग? माथे से टपकते या तुम्हें पता चल गया सुर्ख सूरज को ऊँगली से पोछ देती कौन कर सकता कि स्वर्ग कहीं नहीं था ? भला ऐसा, औरत इस कमरे के सिवा परे सिर्फ़ एक और कमरा था फ़र्क है अच्छे में बुरे में, ये बताने इस दीवार के लिए उस तरफ़अदन के बाग़ का फल सिर्फ एक और दीवार... खाती है खिलाती है हव्वा आदम का अच्छा नसीब होती है लेकिन फिर भी अजीब होती है औरतें अजीब होतीं हैं।सुरजा कहाँ गयी होगी तुम?
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