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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
वक़्त आ गया दुःस्वप्नों के सच होने का।
जागो साथी समय नहीं है ये सोने का।

बेहद मेहनतकश हैं पूँजी के सेवक अब,
जागो वरना वक़्त न पाओगे रोने का।

मज़्लूमों की ख़ातिर लड़े न पूँजी से यदि,
अर्थ क्या रहा हम सब के इंसाँ होने का।

अपने पापों का प्रायश्चित करते हम भी,
ठेका अगर न देते गंगा को धोने का।

‘सज्जन’ की मत मानो पढ़ लो भगत सिंह को,
समय आ गया फिर से बंदूकें बोने का।
</poem>
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