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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है।
वैसे मज़्लूमों का साहस पूँजीरथ का रोड़ा है।

सारे झूट्टे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर,
जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है।

चुँधियाई आँखों को पहले जैसी तो हो जाने दो,
देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है।

ख़ून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब,
इसमें घुले नमक का उत्पादक पूँजीपति टाटा है।

छोड़ रवायत भेद सभी का खोल रहे हैं 'सज्जन’ जी,
जल्दी ही अब इनका भी कारागृह जाना पक्का है।
</poem>
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