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17:11, 4 अप्रैल 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
हर एक शक्ल पे देखो नक़ाब कितने हैं।
सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं।
जले गर आग तो उसको सही दिशा भी मिले,
ग़दर कई हैं मगर इन्क़िलाब कितने हैं।
जो मेरी रात को रोशन करे वही मेरा,
ज़मीं पे यूँ तो रुचे माहताब कितने हैं।
कुछ एक ज़ुल्फ़ के पीछे कुछ एक आँखों के,
तुम्हारे हुस्न से खाना ख़राब कितने हैं।
किसी के प्यार की क़ीमत किसी की यारी की,
न जाने आज भी बाक़ी हिसाब कितने हैं।
</poem>
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