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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
अपनी मिठास पे उसे बेहद ग़ुरूर था।
समझा था जिसको आम वो बंदा खजूर था।

मृगया में लिप्त शेर को देखा ज़रूर था।
बकरी के खानदान का इतना क़ुसूर था।

दिल्ली से दिल मिला न ही दिल्ली में दिल मिला,
दिल्ली में रह के भी मैं यूँ दिल्ली से दूर था।

शब्दों से विश्व जीत के शब्दों में छुप गया,
लगता था जग को वीर जो, शब्दों का शूर था।

हीरे बिके थे कल भी बहुत, आज भी बिकें,
लेकिन नहीं बिका जो कभी, कोहेनूर था।

शब भर मैं गहरी नींद में कहता रहा ग़ज़ल,
दिन में पिये जो अश्क ये उनका सुरूर था।
</poem>
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