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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
सब खाते हैं इक बोता है।
ऐसा फल अच्छा होता है।

पूँजीपतियों के पापों को,
कोई तो छुपकर धोता है।

इक दुनिया अलग दिखी उसको,
जिसने भी मारा गोता है।

हर खेत सुनहरे सपनों का,
झूटे वादों ने जोता है।

महसूस करे जो जितना, वो,
उतना ही ज़्यादा रोता है।

मेरे दिल का बच्चा जाकर,
यादों की छत पर सोता है।

भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’,
सच्चा तो केवल तोता है।
</poem>
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