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<poem>
शीश झुका कर ज्यों रोये हैं
देवदार के पेड़

बादल के घर ताक-झाँक
करने की उनको डाँट पड़ी है
भरी हुई पानी की मटकी
सर से टकरा फूट पड़ी है

सूरज भी तो क्षुब्ध हुआ है
उसका रस्ता रुद्ध हुआ है
दिन भर चिंता में खोये हैं
देवदार के पेड़

थका हुआ सा दिन ले आया
कुहरे का इक बड़ा पिटारा
उसके पीछे फँसा पड़ा था
दल से बिछड़ा हुआ सितारा

टहनी-टहनी कुहरा छाँटे
आपस में संदेशा बाँटे
सारी रात नहीं सोये हैं
देवदार के पेड़

नई सुबह अब बाण सुनहरे
चला रही है आड़े-तिरछे
बादल भी अब संभले हैं कुछ
शांत हुए हैं इस के पीछे

गीले तन को पोंछ तने हैं
नए रूप में सजल बने हैं
किरणों की क्यारी बोये हैं
देवदार के पेड़

</poem>