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15:19, 11 जुलाई 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= मुनव्वर राना
|संग्रह=माँ / मुनव्वर राना}}
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|पीछे=माँ / भाग ११ / मुनव्वर राना
|आगे=माँ / भाग १३ / मुनव्वर राना
|सारणी=माँ / मुनव्वर राना
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इसलिए मैंने बुज़ुर्गों की ज़मीनें छोड़ दीं
मेरा घर जिस दिन बसेगा तेरा घर गिर जाएगा
बचपन में किसी बात पे हम रूठ गये थे
उस दिन से इसी शहर में हैं घर नहीं जाते
बिछड़ के तुझ से तेरी याद भी नहीं आई
हमारे काम ये औलाद भी नहीं आई
मुझको हर हाल में बख़्शेगा उजाला अपना
चाँद रिश्ते में नहीं लगता है मामा अपना
मैं नर्म मिट्टी हूँ तुम रौंद कर गुज़र जाओ
कि मेरे नाज़ तो बस क़ूज़ागर उठाता है
मसायल नें हमें बूढ़ा किया है वक़्त से पहले
घरेलू उलझनें अक्सर जवानी छीन लेती हैं
उछलते—खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है
कुछ खिलौने कभी आँगन में दिखाई देते
काश हम भी किसी बच्चे को मिठाई देते