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16:03, 27 अप्रैल 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कल्पना सिंह-चिटनिस
|अनुवादक=
|संग्रह=चाँद का पैवन्द / कल्पना सिंह-चिटनिस
}}
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<poem>
संघर्ष का सागर,
हुंकारती लहरें,
एक के बाद एक जब
मन मस्तिष्क को हताहत करने लगती हैं,
उसके हर क़तरे में हम
जहर घोल देते हैं,
पर सागर मरता नहीं,
विषाक्त हो जाता है,
और पहले से भी
दुगने जोश के साथ
सिर पटकता है -
हमारी आत्मा के द्वार पर।
</poem>