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05:32, 1 मई 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार मुकुल
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avita}}
<poem>
तुम्हें तो देख कर ही घिन आती है
काले-कलूटे, मरगिल्लों की तरह
पडे हो जमीन पर
मर कर भी
लाइन में ऐसे सजे हो
जैसे सीमा पर
जंग लडने जा रहे होओ
देशभक्त नेताओं, अधिकारियों
व्योपारी संतों को देखों
कैसे मुस्टंडे, चिकने,चाक-चौबंद दिखते हैं
मरपिल्लों, क्या तुम्हें कुछ खाने को नहीं मिलता
ऐसे सुखंडी से दिख रहे
सब के सब
सरकारें इतना तीन-पाचं रूपयों वाली
सस्ते खाने की वैनें
चलाती रहती हैं
कहीं लग जाते
लोकतंत्र की लाइन में
मरना ही था
तो खाते खाते मरते
हर्ट अटैक से मरते
यह क्या कि महान भारत की
महान पुलिस के हाथों मरे
तुम सबने कपडे भी
क्या काले-हरे पहन रखे हैं
कि मर कर भी
मीडिया के किसी काम के नहीं
आजू-बाजू
अपनी मिटटी उठा रहे लोगों को देखो
कैसी सफेद टीशर्ट डटा रखी हैं
क्या तुम्हे वह भी नसीब नहीं
ऐसा सफेद - पीला कुछ पहन रखा होता
तो तुम्हारी देह से निकली सुर्खी
दिशाओं में पसरती
दूर तक
तब मीडिया वाले भी
कुछ ढंग से ताक-झांक लेते तुम्हारी ओर
इतनी लूट-पाट, मार-काट का
आरोप है तुमलोगों पर
कहीं से कुछ स्नो ह्वाइट, ग्लो लाइट जैसी
क्रीमें उठा लाते
कुछ लीप-लाप कर
आदमी से तो दिखते
पर तुम्हें तो
आदमी की संगत मिली नहीं
जंगल में
जंगलियो के साथ रह कर
जंगली बने रहे
आदमी की संगत में होते
तो आदमी बनते
मरना ही होता
तो किसानों की तरह
शांति से कहीं लटक जाते
धरन से
प्रेमियों की तरह
डाल-डगाल से झूल जाते
बहुत चिढ होती
तो अयोध्या रामजन्मभूमि थाने में
बैग चोरी की रपट ना लिखने पर
अग्नि समाधि लेने वाले भोपाली साधु
राम दास त्यागी की दशा को प्राप्त होते।
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