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मुक्तक / कविता भट्ट

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शिखर पर पताका फहराने दो
अभी तो बस घर से चली हूँ मैं ॥
7
'''गहन हुआ अँधियार'''
प्रियतम मन के द्वार ।
धरो प्रेम का दीप
कर दो कुछ उपकार ।
8
'''नीरव मन के द्वार'''
अँसुवन की है धार।
छू प्रेम की वीणा
झंकृत कर दो तार ॥
<poem>
'''