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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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<poem>

बात जब मेरी निकाली गई है
मेरी सच्चाई छुपा ली गई है

क़त्ल अंदर से हो चुका हूं मैं
झूट से जां तो बचा ली गई है

अब ज़रूरत नहीं है दरया की
प्यास अश्कों से बुझा ली गई है

हम से पुरखों की हवेली तो नहीं
सिर्फ़ दस्तार संभाली गई है

दास्ताँ से हटा के मेरा नाम
दिल से इक फांस निकाली गई है
</poem>