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|रचनाकार=गन्धर्व कवि पं नन्दलाल
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'''सांग:- विराट पर्व : द्रोपदी-कीचक संवाद (अनुक्रमांक-2)'''

'''ऐसी वाणी मतना बोलै कोन्या मैनै सुहावै पापी,'''
'''राम करै तूं भी रोवैगा जितनी मैनै रूवावै पापी ।। टेक ।।'''

बुरे कर्म करने वाले को मिलती है बुरी गति कहैं,
आठ तरह से कामदेव को जितै उसको जति कहैं,
छ:ऋषियों नै त्याग दई वशिष्ठ पास अरूंधती कहैं,
गाने वाले को वर देती है माता सरस्वती कहैं,
उसे सती कहै जो गैर पुरुष का कोन्या हाथ लुवावै पापी।।

तूं है गधा नहीं चर जाणै ईस केसर की क्यारी नै,
नहीं हंसनी पसंद करैगी काग तेरी होशियारी नै,
लाख लाख धिक्कार तनै धरीक है तेरी महतारी नै,
करै ओर तै प्रेम दुष्ट तज अपनी प्राणप्यारी नै,
दुखयारी नै छेड़ छेड़ क्युं खोटे वचन कुहावै पापी।।

शुभ सतसंग गंग धारा मै काठ साथ तिर लोह सकता,
संत महात्मा शुद्ध आत्मा जाप पाप को धो सकता,
वैद्य नब्ज का जानण आला बीमारी नै खो सकता,
ठाडे आगै हीणे का कुछ जोर चलै ना रो सकता,
गधा गऊ ना हो सकता क्यूं गंगा बीच नुहावै पापी।।

माता पिता गुरु सेवा जैसा जग मै दुजा धाम नहीं,
कामी क्रोधी कुटिल अधर्मी को मिलता आराम नहीं,
नित की सींचो दुध घृत से लगै अरंड कै आम नहीं,
करै ओर तैं प्रेम कभी वो हो पतिव्रता वाम नहीं,
मधु श्वान कै काम नहीं वायस नै दाख खुवावै पापी।।

खानदान कै बट्टा लां दी तेरे कैसा हो कामी,
दर बे दर वो फिरै भटकता जैसे शूकर हो गामी,
केशवराम नाम की रटना पक्का कागज हो स्टामी,
कुंदनलाल कहै जग अंदर सभी तरह की हो आसामी,
नंदलाल कहै तेरी हो बदनामी क्युं महफिल बीच गुवावै पापी।।
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