|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
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प्रेम को न दान दो, न दो दया,
प्रेम तो सदैव ही समृद्ध है।
प्रेम को न दान दोहै कि ज्योति-स्नेह एक है, न दो दयाप्रेम है कि प्राण-देह एक है,<br>प्रेम तो सदैव ही समृद्ध है।<br><br>है कि विश्व गेह एक है,
प्रेम है कि ज्योति-स्नेह एक हैप्रेमहीन गति,<br>प्रगति विरुद्ध है।प्रेम है कि प्राण-देह एक है,<br>प्रेम है कि विश्व गेह एक है,<br><br>तो सदैव ही समृद्ध है॥
प्रेमहीन गतिप्रेम है इसीलिए दलित दनुज, प्रगति विरुद्ध है।<br>प्रेम तो सदैव ही समृद्ध है॥<br><br>है इसीलिए विजित दनुज,प्रेम है इसीलिए अजित मनुज,
प्रेम है इसीलिए दलित दनुज,<br>प्रेम है इसीलिए विजित दनुज,<br>प्रेम है इसीलिए अजित मनुज,<br><br> प्रेम के बिना विकास वृद्ध है।<br>प्रेम तो सदैव ही समृद्ध है॥<br><br>
नित्य व्रत करे नित्य तप करे,<br>नित्य वेद-पाठ नित्य जप करे,<br>नित्य गंग-धार में तिरे-तरे,<br><br>
प्रेम जो न तो मनुज अशुद्ध है।<br>
प्रेम तो सदैव ही समृद्ध है॥
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