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|संग्रह=सावण फागण / लक्ष्मीनारायण रंगा
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<poem>
सामलै
चौगान मांय
टाबरिया
बणावै
माटी रा घरकोलिया,
पण कोई काळा
कठोर पग
भांग जावै
आं घरकोलिया नै
तो
मनै लागै कै
जाणै
इणी तरियां
कोई अणदेख्या पग
माटी में मिला जावै
म्हारै सपनां रै घरकोलियां नैं
अर हूं
डब-डब नैणां सूं
तिड़क्योड़ी माटी सूं
मुट्ठयां भरतोई रह जाऊं!
</poem>
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