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घर-घर / शैलजा सक्सेना

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<poem>
मैंने एक झूठ सजाया
और खेलती रही उसी से बहुत देर,
कमरे सजाए
गुलदान भी
पालने में बच्चे भी सजाए
और निहारा उन सबको ममता से
फिर खॆलती रही उस ममता से बहुत देर,
घर-घर!
 
फिर सजायी कार
दरवाज़े पर
फिर बगीचा
फिर फर्नीचर
और निहारा उन सब को गर्व से
फिर खॆलती रही उस गर्व से बहुत देर,
घर-घर!
-०-
</poem>