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का ही हृदय भिगो कर.
 
 
क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
 
अगणित अभी यहाँ हैं,
 
बढ़े शांति की लता, कहो
 
वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?
 
 
शांति-बीन बजती है, तब तक
 
नहीं सुनिश्चित सुर में.
 
सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि, जब तक
 
उठे नहीं उर-उर में.
 
 
शांति नाम उस रुचित सरणी का,
 
जिसे प्रेम पहचाने,
 
खड्ग-भीत तन ही न,
 
मनुज का मन भी जिसको माने
 
 
शिवा-शांति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में.
 
सदा जन्म लेती वह नर के
 
मनःप्रान्त निस्प्रह में.
 
 
घृणा-कलह-विफोट हेतु का
 
करके सफल निवारण,
 
मनुज-प्रकृति ही करती
 
शीतल रूप शांति का धारण.
 
 
जब होती अवतीर्ण मूर्ति यह
 
भय न शेष रह जाता.
 
चिंता-तिमिर ग्रस्त फिर कोई
 
नहीं देश रह जाता.
 
 
शांति, सुशीतल शांति,
 
कहाँ वह समता देने वाली?
 
देखो आज विषमता की ही
 
वह करती रखवाली.
 
 
आनन सरल, वचन मधुमय है,
 
तन पर शुभ्र वसन है.
 
बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का
 
विष से भरा दशन है.
 
 
वह रखती परिपूर्ण नृपों से
 
जरासंध की कारा.
 
शोणित कभी, कभी पीती है,
 
तप्त अश्रु की धारा.
 
 
कुरुक्षेत्र में जली चिता
 
जिसकी वह शांति नहीं थी.
 
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली
 
वह दुश्क्रान्ति नहीं थी.
 
 
थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि,
 
वह जो जली समर में.
 
असहनशील शौर्य था, जो बल
 
उठा पार्थ के शार में.
 
 
हुआ नहीं स्वीकार शांति को
 
जीना जब कुछ देकर.
 
टूटा मनुज काल-सा उस पर
 
प्राण हाथ में लेकर
 
 
पापी कौन? मनुज से उसका
 
न्याय चुराने वाला?
 
या कि न्याय खोजते विघ्न
 
का सीस उड़ाने वाला?