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चुनौती / विष्णु खरे

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|संग्रह=काल और अवधि के दरमियान / विष्णु खरे
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इस क़स्बानुमा शहर की इस सड़क पर
सुबह घूमने जाने वाले मध्यवर्गीय सवर्ण पुरुषों में
हरिओम पुकारने की प्रथा है
इस कस्बानुमा शहर की इस सड़क पर<br>सुबह घूमने जाने वाले मध्यमवर्गीय पुरुषों में<br>हरिओम पुकारने की प्रथा है<br><br>यदी यदि यह लगभग स्वगत<br>और भगवान का नाम लेने की एकान्त विनम्रता से ही कहा जाता<br>तब भी एक बात थी<br>क्योंकि तब ऐसे घूमने वाले<br>जो सुबह हरिओम नहीं कहना चाहते<br>शान्ति से अपने रास्ते पर जा रहे होते<br><br> लेकिन ये हरिओम पुकारने वाले<br>उसे ऐसी आवाज़ में कहते हैं<br>जैसे कहीं कोई हादसा वारदात या हमला हो गया हो<br>उसमें एक भय , एक हौल पैदा करने वाली चुनौती रहती है<br>दूसरों को देख वे उसे अतिरिक्त ज़ोर से उच्चारते हैं<br>उन्हे उन्हें इस तरह जाँचते हैं कि उसका उसी तरह उत्तर नहीं दोगे<br>तो विरोधी अश्रद्धालु नास्तिक और राष्ट्रद्रोही तक समझे जाओगे<br>इस तरह बाध्य किए जाने पर<br>अक्सर लोग अस्फुट स्वर में या उन्ही उन्हीं की तरह ज़ोर से<br>हरिओम कह देते हैं<br>शायद मज़ाक मज़ाक़ में भी ऐसा कर कह देते हों कुछ<br><br> हरिओम कहलवाने वाले उसे एक ऐसे स्वर में कहते हैं<br>जो पहचाना-सा लगता है<br> एक सुबह उठकर<br>कोठी जाने वाले इस ज़िला मुख्यालय मार्ग पर<br>मैं प्रयोग करना चाहता हूँ<br>कि हरिओम के प्रत्युत्तर में सुपरिचित जैहिन्द कहूँ<br>या महात्मा गाँधी की जय या नेहरु नेहरू ज़िन्दाबाद<br>या जय भीम अथवा लेनिन अमर रहें<br>-कोई इनमें से जानता भी होगा भीम या लेनिन को?-या अपने इस उकसावे को उसके चरम पर ले जाकर<br>अस्सलाम अलैकुम या अल्लाहु अकबर बोल दूँ<br>तो क्या सहास मतभेद से लेकर<br>दंगे दँगे तक की कोई स्थिति पैदा हो जाएगी इतनी सुबह<br>कि इतने में किसी सुदूर मस्जिद का लाउडस्पीकर कुछ खरखराता है<br>और शुरू होती है फ़ज्र की अज़ान<br>और मैं कुछ चौंक कर पहचानता हूँ<br>कि यह मध्यमवर्गीय जो मध्यवर्गीय सवर्ण हरिओम बोला जाता है<br>वह नमाज़क नमाज़ के वज़न पर है बरक्स<br><br> शायद यह सिद्ध करने का अभ्यास हो रहा है<br>कि मुसलमान मुसलमानों से कहीं पहले उठता है हिन्दु हिन्दू ब्राह्म मुहूर्त के आसपास<br> फिर वह जो हरिओम पुकारता है उसी के स्वर अज़ान में छिपे हुए हैं<br>जैसे मस्जिद के नीचे मन्दिर<br>जैसे काबे के नीचे शिवलिंग<br><br> गूँजती है अज़ान<br>दो-तीन और मस्जिदों के अदृश्य लाउडस्पीकर<br>उसे एक लहराती हुई प्रतिध्वनि बना देते हैं<br>मुल्क में कहाँ-कहाँ पढ़ी जा रही होगी नमाज़ इस वक्त<br>वक़्तकितने लाख कितने करोड़ जानू झुके होंगे सिजदे में<br>कितने हाथ माँग रहे होंगे दुआ कितने मूक दिलों से में उठ रही होगी सदा<br>अल्लाह के अकबर होने की लेकिन<br>क्या हर गाँव-कस्बेक़स्बे-शहर में उसके मुक़ाबिल मुका़बिले इतने कम उत्साहियों द्वारा<br>हरिओम जैसा कुछ गुँजाया जाता होगा<br><br> सन्नाटा छा जाता है कुछ देर के लुए लिए कोठी रोड पर अज़ान के बाद<br>होशियार जानवर हैं कुत्ते वे उस पर नहीं भौंकते<br>फिर जो हरिओम के नारे लगते हैं छिटपुट<br>उनमें और ज़्यादा कोशिश रहती है मुअज़्ज़िनों जैसी<br>लेकिन उसमें एक होड़ , एक खीझ , एक हताशा-सी लगती है<br>जो एक ज़बर्दस्ती ज़बरदस्ती की ज़िद्दी अस्वाभाविक पावनतावादी चेष्टा को<br>एक समान सामूहिक जीवंत जीवन्त आस्था से बाँटती है<br>वैसे भी अब सूरज चढ़ आया है और उनके लौटने का वक्त वक़्त है<br><br> लेकिन अभी से ही उनमें जो रंज़ीदगी और थकान सुनता हूँ<br>उससे उस से डर पैदा होता है<br>कि कहीं वे हरिओम कहने को अनिवार्य न बनवा डालें इस सड़क पर<br>और फिर इस शहर में<br>और अंत अन्त में इस मुल्क में</poem>
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