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प्रलय-संकेत / विष्णु खरे

23 bytes removed, 11:40, 20 सितम्बर 2018
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'''कविता पूर्व कवि की टिप्पणी --'''
'''{मानव के नैतिक ह्रास के कारण अपरिहार्य, सृष्टि के अन्त के लक्षणों और पूर्वसंकेतों का जैसा वर्णन और भविष्यवचन प्राचीन भारतीय परम्परा में है, वैसा शायद और कहीं नहीं है. बाइबिल के पूर्वार्ध 'ओल्ड टेस्टामेण्ट' में जेरेमियाह नामक एक सन्त-मसीहा हैं, जिन्होंने ऐसी ही दारुण भविष्यवाणियाँ की हैं और इस तरह उनके लिए 'जेरेमियाड' शब्द प्रदान किया है, लेकिन भारतीय चेतावनियों के लिए ऐसा कोई प्रत्यय संस्कृत में नहीं मिलता और मात्र 'अपशकुन' इनके लिए अपर्याप्त है। निस्सन्देह ऐसी संकेतावलियों में हर युग और सभ्यता अपनी नैतिक अवनति और दुरावस्था का प्रतीकभास देखते आए हैं और भले ही मानव-जाति या सृष्टि का अन्त अभी न हुआ हो, महर्षि वेदव्यास विरचित 'महाभारत' में वर्णित दुर्दान्त अपशकुन, दु:स्वप्न और कुलक्षण इस इक्कीसवीं सदी में अधिक प्रासंगिक, आसन्न और अवश्यंभावी प्रतीत हो रहे हैं।'''
'''इस कविता को स्वीकृत, सुपरिचित अर्थों में पूर्णतः 'मौलिक' नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा अपने सुविख्यात मासिक 'कल्याण' के अगस्त १९४२ के विशेषांक के रूप में प्रकाशित महाभारत-अनुवाद 'संक्षिप्त महाभारतांक' से प्राप्त, उत्थापित, शोधित, उत्खनित, अन्वेषित तथा आविष्कृत ( प्रबुद्ध पाठक जो चाहें सो कह लें) है। कुछ अंश अवश्य प्रक्षिप्त किए गए हैं, किन्तु भगवान कृष्णद्वैपायन के विश्व-काव्य में ऐसे प्रक्षेपणों को एक आपराधिक प्रमाद ही कहा जाएगा. तब भी यह दुस्साहसिक विनम्रता में यहाँ प्रस्तुत है।}'''
'''प्रलय-संकेत''' '''(तुभ्यमेव भगवंतं वेदव्यासं)'''
दिवस और रात्रि में कोई अन्तर नहीं कर पाता मैं दोनों समय ऐसे दीखते हैं जैसे सूर्य चन्द्र नक्षत्रों से ज्वालाएँ उठती हों
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