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धूम-मेघ / बालस्वरूप राही

600 bytes removed, 07:18, 23 सितम्बर 2018
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इस तरह तो दर्द घट सकता नहींइस तरह तो वक़्त कट सकता नहींआस्तीनों से न आंसू पोंछिएऔर ही तदबीर कोई सोचिए।धूम-मेघ छाए आकाश
यह अकेलापन, अंधेरा, यह उदासी, यह घुटनद्वार तो जन्मे हैं बन्द भीतर किस तरह झांके किरन।जंग लगी चिमनी के गर्भ सेजुड़ न सके पावस के रसमय सन्दर्भ सेआँधी में उड़ते ज्यों फटे हुए ताश।
बन्द दरवाज़े ज़रा-से खोलिएरोशनी झुलस गये पौधे सब नदी पार खेत के साथ हंसिए-बोलिएमौन पीले पात-सा झर जायेगाछूट गये ऊसर में चिन्ह किसी प्रेत केतो हृदय का घाव खुद भर जायेगा।ओर छोर फैला है सांवला प्रकाश।
एक सीढ़ी है हृदय में भी महज़ घर में जब से ये छाये हैं खिली नहींधूपसर्जना के दूत आते हैं सभी हो कर वहीं।कुहरे ने पोंछ दिया क्षितिजों का रूपसागर में तैर रही सूरज की लाश।
ये अहम की श्रृंखलाएं तोड़िएइतनी तो कभी न थीं बाहें असमर्थऔर कुछ नाता गली से जोड़िएजब सड़क खोल नहीं पाती हैं जीने का शोर भीतर आयेगाअर्थतब अकेलापन स्वयं मर जायेगा।खोई प्रतिबिम्बों में बिम्ब की तलाश।
आइए कुछ रोज़ कोलाहल भरा जीवन जियेंअंजुरी भर दूसरों के दर्द का अमृत पिएं आइए, बातून अफवाहें सुनेंफिर अनागत के नये सपने बुनेंयह सिलेटी कोहरा छंट जायेगातो हृदय का दर्द खुद घट जायेगा।धूम-मेघ छाए आकाश।
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