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|रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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|संग्रह=तुमने कहा था / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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<poem>
मौत भी उनसे घबराती है डर को भी लगता है डर
राहे वतन में जो निकले हों हाथ पे रखकर अपना सर

इसने भी मारे थे इक दिन इस शीशे के घर पर पत्थर
आज पकड़कर जो बैठा है हाथ में अपने अपना सर

पंछी कैसे उड़ सकता था उसके घर पर तो कटे हुए थे
तू तो उड़ जा रूह के पंछी तुझको तो दरकार नहीं पर।

हमने जिस को दिल में बसाया उसने ही दिल तोड़ दिया है
इसका कुछ अफ़सोस नहीं है होता रहता है ये अक्सर

जिनके दम से आज भी दुनिया अमन के रस्ते चलती है
गौतम ईसा और नानक हैं मानवता के मील के पत्थर।

</poem>
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