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03:47, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मेहर गेरा
|अनुवादक=
|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
ये और बात मैंने किया है सफ़र बहुत
याद आ रहा है आज मुझे अपना घर बहुत
बस एक ही को आज की बारिश ने धो दिया
लिक्खे थे नाम और भी दीवार पर बहुत
किस्सा नया सुनाती है हर घर की बेबसी
एहसान एक शख्स के हैं शहर पर बहुत
जब सुब्ह दम उठा मिरी भीगी हुई थीं आंख
रोता रहा है कोई कहीं रात भर बहुत
तनहारवी का ज़ेहन से एहसास दो निकाल
इज़्ने-सफ़र करो जो मियां हमसफ़र बहुत
ये बात अहदे-मीर तक महदूद ही नहीं
फिरते हैं ख़्वार आज भी अहले-हुनर बहुत
सूरज के डूबते ही सभी घर को चल पड़े
है मेहर आज बस्ती के लोगों में डर बहुत।
</poem>