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06:21, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=[[अजय अज्ञात]]
|अनुवादक=
|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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{{KKCatGhazal}}
<poem>
ज़िंदगी जीने का तब तक क़ायदा आया न था
खाइयों को दिल की जब तक पाटना आया न था
दूसरे के ऐब हम को तब तलक दिखते रहे
सामने जब तक हमारे आइना आया न था
कुर्बतों की अहमियत को हम नहीं पाए समझ
दरमियां जब तक हमारे फासला आया न था
जिस दिये की लौ बचाई हाथ उस से जल गया
ठीक से हम ही को शायद ढांपना आया न था
देर तक ‘अज्ञात' ख़ुशियों से रहे महरूम हम
ज़िंदगी में ठीक से ग़म पालना आया न था
</poem>