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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
जफ़ा समझे, वफ़ा समझे, भला समझे, बुरा समझे
उसे तर्जीह क्या देना, जो ख़ुद को ही ख़ुदा समझे

अकड़ कर रहने वालों को यहाँ इज़्ज़त नहीं मिलती
उसे सब प्यार करते हैं सभी को जो सगा समझे

गदा-ए-इश्क़ समझे है, तो कोई मनचला हमको
नहीं जब ख़ुद को हम समझे, क्या कोई दूसरा समझे

हुई ग़फ़लत कभी ऐसी कि तुम को क्या बताएं अब
अधूरे काम को भी हम कभी पूरा हुआ समझे

उन्हें जो भी लगा अच्छा मेरे बारे में वो समझा
मगर ‘अज्ञात’ को यारो नहीं वो हैं ज़रा समझे
</poem>
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