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{{KKRachna
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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
मेरी हर ख़्वाहिश अधूरी रह गयी
ज़िंदगी की जुल्फ उलझी रह गयी

ज़ह्नो दिल में ठन गयी जिस रोज़ से
नींद बस करवट बदलती रह गयी

देह के बंधन को त्यागा रूह ने
एक मुट्ठी ख़ाक बाक़ी रह गयी

वो बसेरा खाली कर के चल दिया
नाम की तख़ती लटकती रह गयी

इत्तेफ़ाक़न छू गया उनसे जो हाथ
देर तक ख़ुशबू महकती रह गयी
</poem>
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