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|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
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<poem>
शक्ति सारी खींच लेगा डर यही अध्यक्ष में,
हर तरफ बाली कुशासन का यहाँ समकक्ष में।

भव्य भारत वर्ष में अब क्यों महाभारत न हो,
दृष्टिहीना कामनायें हों अगर प्रतिपक्ष में।

देश ये अभिशप्त है अब तो परीक्षित की तरह,
सब-के-सब कानून अब हैं तक्षकों के पक्ष में।

क्यों न कौरव दल निरंतर हो फलित-फूलित यहाँ,
मोह जब बढ़ने लगा है पार्थ के ही वक्ष में।

सब-के-सब ख़ुद को युधिष्ठिर कह रहे इस भीड़ में,
प्रश्न करने की न अब है शक्ति बूढ़े यक्ष में।

भीष्म द्रोंणाचार्य औ' कृप की तरह पंडित जहाँ,
क्या कि मूल्यों का हरण हो चीर ऐसे कक्ष में।
</poem>
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