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14:15, 21 दिसम्बर 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=एस. मनोज
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जे छलै अभिशप्त मानव वैह एखन अछि लड़ि रहल
श्वेदकण सँ सीचिंके ओ पेट सबहक भरि रहल
एक गज धरतीक टुकड़ा ओकरा नहिं अछि धर ल
दुधमुंहा नेना ओकर अछि नभकें नीचाँ जरि रहल
राति ओकर बीत जयतै सड़क वा फुटपाथ पर
शौच ल ओ कतय जयतै अहि सोचे डरि रहल
जय जवानक जय किसानक नारा की लगबै छलहुँ
सीमा पर आ खेतमे ओ नित एतय अछि मरि रहल
सप्तरंगी योजनामे कार्य बल तल्लीन अछि
ओ में जे अछि गरीब लेखे फाइलेमे सड़ि रहल।
</poem>
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