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अबद / फ़हमीदा रियाज़
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15:08, 25 दिसम्बर 2018
मिरे लहू में सिमटता सय्याल एक नुक्ते पे आ गया है
मिरी नसें आने वाले लम्हे के ध्यान से खिंच के रह गई हैं
बस
,
अब तो सरका दो रुख़ पे चादर
दिये बुझा दो
</poem>
अनिल जनविजय
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