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कर न पाया सर क़लम जब तीर से, तलवार से
जाँ हमारी ले गया वो मुस्कराकर प्यार से
वह समय था झूठ भी उस शख़्स का लगता था सच
यह समय है सच भी उसका है परे एतबार से
 
देख पाता था न माथे का पसीना वो कभी
अब वही बेफ़िक़्र है अपने उसी बीमार से
 
वो मोहब्बत, वो नज़ाकत, शोखि़याँ वो फिर कहाँ
अब तो नाउम्मीद हूँ इस बेवफ़ा सरकार से
 
देखियेगा वो शिकारी भी फँसेगा जाल में
आज ले ले लुत्फ़ वो मासूम के चीत्कार से
 
खुश हूँ मैं दुनिया में अपनी माफ़ करना दोस्तो
ख़ौफ़ मैं खाने लगा अब हर बड़े क़िरदार से
 
उस तरफ़ है यार का घर, इस तरफ़ डेरा मेरा
बीच में गहरी नदी है डर लगे मँझधार से
</poem>
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