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गूँगे-बहरे बने रहें मंज़़ूर नहीं
गिरवी हो लेखनी हमें मंज़़ूर नहीं
सत्ता से हम टक्कर लेते आये हैं
हम दरबारी ग़ज़ल कहें मंज़़ूर नहीं
 
सत्य बोलना जुर्म अगर है तो फिर है
झूठा बोलें खुश रक्खें मंज़़ूर नहीं
 
सेाने की भी जाँच कसौटी पर होती
हम हर बात पे हाँ बोलें मंज़़ूर नहीं
 
अच्छे दिन के लिए तो जाँ भी हाज़िर है
तिल- तिल करके रोज़ मरें मंज़ू़र नहीं
 
अश्कों से भी दिल के दिये जला सकते
अँधियारे में पड़े रहें मंज़़ूर नहीं
 
हम बोंलेंगे तभी ज़माना बोलेगा
इंतेज़ार अब और करें मंज़ू़र नहीं
</poem>
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