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19:47, 15 जनवरी 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
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<poem>
भीष्मों को ललकार रहे हैं देखो आज शिखंडी।
मक्कारों के क्रय विक्रय की सजी हुई है मंडी॥
उछल रहे हैं बहस के लिए जिनने हँसकर पाया
पुरस्कार, सम्मानसमादर, धन दौलत, पद, माया।
लोकतंत्र तो आज बन रहा शरणस्थल चोरों का,
गद्दारों की कुलकरनी का, झूठे, मुँहजोरों का।
जो गुलाम के हैं गुलाम वे लामबंद हो कहते
"हमें लाज लगती है अब तो इस भारत में रहते।"
उनका कहना "देश नहीं है रहने लायक यारो !
चारों ओर अराजकता है, केवल काटो मारो॥
हिटलरशाही आज देश में,घोर कष्ट है फैला।
शामदाम से शत्रु को नहीं सकोगे जीत।
अगर जीतना शत्रु को अपनाओ विपरीत॥
शाम नीति से शत्रु कब होता है भयभीत?
चिकनाई हटती नहीं पानी से हे मीत!
दंडभेद की नीति भी बड़ी जरूरी तात!
रुद्ध हुआ करता सदा इससे ही उत्पात।
</poem>