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17:03, 19 जनवरी 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कपिल भारद्वाज
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
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{{KKCatHaryanaviRachna}}
<poem>
मैंने एक रोती लड़की को कहा था,
कि बहुत सुंदर लगती हो रोती हुई तुम,
तुम्हारे गालों पे ठहरे आंसू,
मुझे ऐसे दिखते हैं,
जैसे किसी कृषक को,
गेंहू की बाली में मोटे मोटे दाने,
वो मुस्कुरा उठी,
सामने रखी कबीर की किताब के पन्ने फड़फड़ाये,
मीरा के शब्द नाचने लगे और,
बुद्ध ने आँखे मीच ली ।
प्रेम कल्पित नहीं होता और न ही दूर की कौड़ी,
अहसासों की नदी के किनारे उगी,
अनवांछित और बेतरतीब घास,
मीरा के शब्दों को धुंधला करने के लिए काफी होती हैं,
कबीर की थिरकती देह को पसीने से लथपथ करने के लिए,
और बुद्ध के ध्यान से निकलते संगीत को बेसुरा करने के लिए भी ।
</poem>