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{{KKRachna
|रचनाकार=कपिल भारद्वाज
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
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<poem>
हिंदी मां है हमारी,
और वृद्धाश्रमों का निर्माण इसलिए किया गया है,
कभी-कभी अंगूठे की जरूरत पड़ने पर याद करते हैं हम ।

उर्दू को मौसी माना हमने,
जिसे कैकेयी की संज्ञा से विभूषित कर दिया,
जिसने रामराज्य को विलम्बित करके,
धर्माचार्यों को आशंकित कर दिया था ।

अंग्रेजी को वाइफ समझ रखा है,
जो अत्यधिक प्यार से बिगड़कर,
रणचंडी बन बैठी है,
हमारे सिरों पर लटकाती रहती है एक तलवार,
जिसके ख़ौफ़ में हमने,
अपनी ‘माँ’ के लिए एक दिन मुकर्रर कर दिया ।

असल मे सवाल भाषा का नहीं
अपनी जड़ों से कटने का है ।
</poem>
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